ब्रिटिश अधिकारी जनरल टेलर ने 1818 में सांची स्तूप की खोज की। उसके बाद अनेक ब्रिटिश अधिकारी वहाँ कुछ मिलने के ध्येय से उत्खनन करते रहे।सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने भी यहाँ 1851 में उत्खनन की शुरुआत की। मुख्य भव्य स्तूप क्र.1 में क्या कुछ मिला, ये अज्ञात है। जो स्तूप टेकड़ी से नीचे है वह स्तूप क्रमांक 2 है।वहाँ सारिपुत्र और मौद्गल्यायन के अस्थि कलश प्राप्त हुए थे। इन अस्थि कलशों को समुद्र मार्ग से जहाज़ द्वारा लंदन भिजवाने की व्यवस्था की गयी लेकिन जहाज़ बीच समुद्र में ही डूब गया। ठीक उसी समय सतधारा के एक स्तूप में ब्रिटिश अधिकारी मायसे को सारिपुत्र और मौद्गल्यायन के अस्थि कलश स्तूप क्र. 2 में प्राप्त हुए। वे उन्होंने जहाज़ द्वारा लंदन भिजवाये और वे वहाँ सकुशल पहुँच गये। ( वे अस्थि कलश ही महाबोधि सोसाइटी को प्राप्त हुए जो अब चेतियगिरी विहार में रखे गये हैं।)
सन् 1912 के बाद भारतीय पुरातत्व विभाग के संचालक सर जाॅन मार्शल की देखरेख में इस स्थल को दुरुस्त किया गया। यहाँ खंडित अनेक वस्तुओं का क्रमवार वर्गीकरण किया गया व भग्नावशेषों को व्यवस्थित रचकर रखा गया। सर जाॅन मार्शल 1912 से 1928 तक ASI के संचालक थे। उनके कार्यकाल में उन्होंने स्तूप के बाजू का
परकोटा दुरूस्त किया। इसी तरह सीढियां और हर्मिका को रिपेयर किया गया। इसके अतिरिक्त सातवाहन शासकों के समय स्तूप के अग्रभाग का जो नक्षीदार प्रवेश द्वार (तोरण) बनवाया गया था खंडित होने की वजह से सुधारा गया। इस प्रकार सर जाॅन मार्शल का लंबा कार्यकाल इसी स्थान पर बीता। जिससे उनका स्तूप से एक आत्मीय संबंध कायम हुआ। वे अपनी पत्नी, बिटिया और मेड के साथ यहाँ अनेक बार घूमने आते थे।
संक्षेप में कहें तो सभी ब्रिटिश अधिकारी अध्येता नहीं थे। अनेक ब्रिटिशअधिकारियों ने उत्खनन करते हुए स्तूप में प्राप्त अनेक मूल्यवान वस्तुओं को ग़ायब भी किया। कुछ बहुमूल्य वस्तुएं निजी संग्राहकों को भी बेंच दी गई। सर जाॅन मार्शल की तरह विरले ही ऐसे अधिकारी हुए जिन्होंने प्राचीन स्थलों के जीर्णोध्दार का काम पूरे प्राणपन से किया हो।
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