एक समय भगवान बुद्ध चालिय पर्वत पर विहार करते थे। उस समय भिक्खुसंघ में मेधिय भिक्खु भी थे।
उसके मन में ऐसा विचार आया कि नजदीक में स्थित रमणीय उद्यान में ध्यान लगाऊं। तथागत से निवेदन किया, तथागत ने उसे अनुमति नहीं दी। फिर भी बार बार निवेदन करने के कारण तथागत ने उसे उद्यान में ध्यान लगाने की अनुमति दे दी।
मेधिय उद्यान में ध्यान लगाने बैठ गया लेकिन उसका मन इधर उधर भटकने लगा। प्रयत्न करने पर भी उसका चित्त एकाग्र नहीं हो पाया। वह वहां से उठा और तथागत के पास आकर अपने मन की विफलता का वर्णन किया।
फंद चपलं चित्तं,
दुरक्खं दुन्निवारयं।
उजुं करोति मेधावी,
उसुकारो व तेजनं ।।”
– धम्मपद ( चित्तवग्गो)
चित्त क्षणिक है, चित्त चंचल है, इसे रोके रखना कठिन है और इसे निवारण करना भी दुष्कर है। ऐसे चित्त को मेधावी पुरूष सीधा करता है, जैसे बाण बनाने वाला बाण को ( सीधा करता है) ।
भगवान बुद्ध एक समय श्रावस्ती में विहार करते थे ,उस समय अञ्ञतर भिक्खु को उपदेश देते हुए कहा —
“दुन्निग्गहस्स लहुनो,
यत्थकामनिपातिनो ।
चित्तस्स दमथो साधु,
चित्तं दन्तं सुखावहं।।”
– – धम्मपद ( चित्तवग्गो)
जिसका निग्रह करना बड़ा कठिन है, जो बहुत हल्के स्वभाव का है,जो जहां चाहे झट चला जाता है- ऐसे चित्त का दमन करना उत्तम है। दमन किया हुआ चित्त सुखदायक होता है।
नमो बुद्धाय🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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