“मोहं भिक्खवे,एकधम्मं पजहथ ।
अहं वो पाटिभोगो अनागामितया ।। ”
-(इतिवृत्तक)
अर्थात,
” भिक्खुओं, केवल एक मोह का त्याग कर दो, तो मैं तुम्हारे अनागामी होने की जामिन होता हूँ ।”
राग, द्वेष, मोह के बंधनों से मुक्ति ही निर्वाण पथ हैं । जो व्यक्ति इन तीन दोषों का प्रहाण करता हैं, वह व्यक्ति निर्वाण सुख भोगता हैं । राग, द्वेष और मोह का प्रहाण शील, समाधि और प्रज्ञा से हो जाता हैं ।
प्रहाण तीन प्रकार के होते है-
१. तदांग प्रहाण
२. विक्खम्भन प्रहाण
३. समुच्छेद प्रहाण
प्रदीप के प्रकाश से जैसे अंधकार थोड़ा-थोडा करके दूर हो जाता है, ऐसे ही प्राणी हिंसा से विरत होने आदि कुशल अंगों से, प्राणी हिंसा करना आदि अकुशल अंगों का प्रहाण हो जाता है। ऐसे ही प्रहाण को तदांग प्रहाण कहते है।
जैसे घड़े से लगते पानी के ऊपर का सेवाल हट जाता है, ऐसे ही उपचार और अर्पणा समाधि से पाँच नीवरण दब जाते हैं,दूर हो जाते हैं,उस अवस्था को विक्खम्भन (विष्कम्भन) प्रहाण कहते है।
चारों आर्य मार्गों की भावना से क्लेशों का एकदम दूर हो जाना, फिर कभी न उत्पन्न होना- समुच्छेद प्रहाण कहा जाता है।
“खीणं पुराणं, नवं नत्थि सम्भवं”
पुराने कर्म क्षीण हो गये,
नये कर्म उत्पन्न नहीं होते,
तब चित्त पुनर्भाव से विरक्त होता हैं,
क्षीणबीज होते जाते हैं और तृष्णा ही समाप्त हो जाती हैं ।
मनुष्य का जीवन श्रेष्ठ, दुर्लभ, कठिन माना जाता हैं, क्योंकि मनुष्य जीवन में ही राग-द्वेष और मोह को संपूर्ण समाप्त कर सकते हैं ।
निर्वाण सुख और भवसागर पार करना ही मनुष्य जीवन का धम्मपथ हैं ।
नमो बुद्धाय 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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