August 28, 2025

Buddhist Bharat

Buddhism In India

पवित्र बुद्ध वाणी १६३

सुप्पवासा सुत्त

एक समय भगवान् कोलिय में सज्जनेल नाम के कोलिय-निगम में ठहरे हुए थे। तब भगवान पूर्वान्ह समय (चीवर ) धारण कर, पात्र चीवर ले, जहाँ सुप्पवासा कोलिय-कन्या का घर था, वहाँ पहुँचे। पधारकर बिछे आसन पर विराजमान हुये। तब सुप्पवासा कोलिय-कन्या ने भगवान को प्रणीत आहार अपने हाथ से परोसा। भोजन कर चुकने पर जब भगवान् ने पात्र से हाथ खींच लिया, तो सुप्पवासा एक ओर बैठ गई। एक ओर बैठी हुई सुप्पवासा कोलिय-कन्याको भगवान् ने इस प्रकार सम्बोधित किया–

“सुप्पवासा! जो आर्य श्राविका भोजन को दान करती है वह भोजन ग्रहण करने वालों को चार चीजों का दान करती है। कौन-सी चार चीजें ? आयु का दान करती है। वर्ण का दान करती है। सुख का दान करती है। बल का दान करती है। वह आयु का दान करने के कारण दिव्य अथवा मानुषी आयु की अधिकारिणी होती है। वर्ण का दान करने से दिव्य अथवा मानुषी वर्ण की अधिकारिणी होती है। सुख का दान करने से दिव्य अथवा मानुषी सुख की अधिकारिणी होती है। बल का दान करने से दिव्य अथवा मानुषी बल की अधिकारिणी होती है। सुप्पवासा! जो आर्य श्राविका भोजन का दान करती है, वह भोजन ग्रहण करने वालों को चार चीजोंका दान करती है।

“सुसङ्खतं भोजनं या ददाति,
सुचिं पणीतं रससा उपेतं।
सा दक्खिणा उज्जुगतेसु दिन्ना,
चरणूपपन्नेसु महग्गतेसु।
पुञ्ञेन पुञ्ञं संसन्दमाना,
महप्फला लोकविदून वण्णिता॥
एतादिसं यञ्ञमनुस्सरन्ता,
ये वेदजाता विचरन्ति लोके।
विनेय्य मच्छेरमलं समूलं,
अनिन्दिता सग्गमुपेन्ति ठान”न्ति॥

“जो भली प्रकार तैयार किये गये, शुद्ध, प्रणीत, सरस भोजन का दान करती है, और यदि वह दान ऋणुचर्या वाले, आचार-परायण महान् व्यक्तियों को दिया जाता है, तो लोक विदू (तथागत) में पुण्य का पुण्य से मेल बिठाकर इस प्रकारके दानको महान् फलवाला कहा है। इस बात का अनुकरण कर जो प्रसन्न चित्त हो, लोकमें विचरते हैं वे मात्सर्यरूपी मलका समूल उच्छेद कर अनिन्दित रह स्वर्ग लोक को प्राप्त होते हैं।”

अंगुत्तर निकाय ४.६.७, सुत्तपिटक